Thursday, 31 August 2017

*विंशोत्तरी दशा फल कथन* हम सभी जानते हैं कि 12 भाव होते हैं और उसमें स्थित राशि उस भाव के स्वामी होते हैं, यहां शुभ भाव के स्वामी अशुभ ग्रह भी होते हैं और अशुभ भाव के स्वामी शुभ ग्रह भी होते हैं उदाहरण के लिए मेष लग्न के लिए लग्न के साथ पंचम जो त्रिकोण स्थान होने के कारण शुभ हैं लेकिन मंगल एवं सूर्य नैसर्गिक रूप से अशुभ ग्रह हैं तथा तुला लग्न में तीसरे एवं छठे स्थान के स्वामी गुरू होते हैं गुरू नैसर्गिक रूप से शुभ ग्रह हैं लेकिन तीसरा एवं छठा स्थान अशुभ स्थान कहे गए हैं । यहां हम लोगों को तात्कालिक गुण की भी बात करनी होगी । यदि तात्कालिक रूप से अर्थात आपके लग्नानुसार जो शुभ ग्रह भी यदि अशुभ नाथ हो तो उस स्थान के फल उसी शुभ ग्रह को करना होगा । उसी प्रकार शुभ भाव के स्वामी यदि अशुभ ग्रह हों तो उस भाव की शुभता उसी अशुभ ग्रह से प्राप्त होगा । यहां समझना होगा कि भाव के स्वामित्व प्राप्त करने पर किसी भी ग्रह के कारकत्वों या गुणस्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं होता अपितु अपने गुणस्वरूप के आधार पर ही संबंधित भावों का शुभाशुभ फल प्रदान करते हैं । हम सभी जानते हैं कि जीवनपर्यन्त आने वाले शुभाशुभ परिणामों के लिए भाव, भावेश तथा कारक को समझना होता है जो हमें लग्न चार्ट को देखकर तथा वर्गचार्ट से समर्थन प्राप्त कर मालुम होता है । उदाहरण के लिए विवाह होगा कि नहीं वैवाहिक जीवन कैसा होगा इसके लिए सप्तम भाव, सप्तमेश एवं कारक शुक्र के साथ-साथ स़्त्री जातक विशेष के लिए गुरू का अध्ययन कर समझ सकते हैं । लेकिन जब प्रश्न होगा कि विवाह कब होगा अर्थात समय निर्धारण की बात है किस वर्ष किस माह या किस दिन होगा इसके लिए हमेशा ज्योतिष में दशा के उपर निर्भर रहना होता है । यदि हमें लग्न चार्ट देखना आ गया तो हम यह समझ सकते हैं कि विवाह या वैवाहिक जीवन कैसा होगा परन्तु विवाह का समय निर्धारित करने के लिए दशा को समझना जरूरी होगा । यहां हम सर्व प्रथम आप लोगों को विंशोत्तरी दशा की चर्चा करेंगे जो प्रचलित होने के साथ-साथ विशेष स्पष्टता भी प्रदान करता है । हम जानते हैं कि दशा क्रम क्या होता है पुनः उसको दुहराते हैं - *आ - चम - भौ - रा - जी - श- बु - के- शु* याद रखने में आसान होगा । यहां आ का मतलब आदित्य अर्थात सूर्य, चम का अर्थ चन्द्रमा, भौ का अर्थ भौम अर्थात मंगल, रा से राहु जी का मतलब जीव यहां गुरू को जीव भी कहा जाता है, श से शनि, बु से बुध, के से केतु और शु से शुक्र । यह भी जानते हैं कि जन्म के समय चन्द्रमा जिस नक्षत्र में स्थित हो उसी नक्षत्र के स्वामी की शेष दशा प्राप्त होती है । यहां गणितीय पद्धति में समझते हैं कि यदि चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में जन्म के समय 3 अंश 20 कला भोग चुका हो तो चन्द्रमा की शेष 7.5 वर्ष की दशा प्राप्त होगी तथा चन्द्रमा के बाद मंगल और मंगल के बाद राहु की उपर जो क्रम बताया गया है उसी के अनुसार दशा क्रम जीवन पर्यन्त चलता रहेगा । यहां हमने महादशा की बात बतायी । विंशोत्तरी दशा पांच खंडों में बताया गया है - महादशा - अन्तदर्शा - प्रत्यन्तर्दशा - सूक्ष्म दशा तथा प्राण दशा । किसी भी ग्रह की महादशा होने पर उसी ग्रह की अंतर दशा प्राप्त होती है और पुनः दशा क्रम से अन्तर्दशा बदलती है । उदाहरण के लिए माना कि शुक्र की महादशा है तो शुक्र की अंतर्दशा प्राप्त होगी शुक्र की अंतर्दशा समाप्त होने पर क्रमशः सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, राहु, गुरू, शनि, बुध तथा केतु की आखरी अंतर्दशा शुक्र की महादशा में होगी । अंतर्दशा में प्रत्यन्तर दशा क्रम भी इसी अनुसार होगा साथ ही सुक्ष्म दशा और प्राण दशा का क्रम भी इसी नियम का पालन करता है । महादशा वर्ष भी यहां लिखना उचित होगा - सूर्य - 6 वर्ष, चन्द्रमा - 10 वर्ष, मंगल - 7 वर्ष, बुध - 17 वर्ष, गुरू - 16 वर्ष, शुक्र - 20 वर्ष, शनि - 19 वर्ष, राहु - 18 वर्ष तथा केतु की 7 वर्ष की महादशा होती है । महादशा में किन ग्रह की अंतर्दशा कितनी होगी इसको संक्षेप में समझते हैं - उदाहरण के लिए शुक्र की महादशा में चन्द्रमा के अंतर्दशा वर्ष - चूंकि 120 वर्ष की महादशा में 10 वर्ष की दशा प्राप्त होती है तो शुक्र की 20 वर्ष की महादशा में कितने की वर्ष की यहां संक्षेप में महादशा गुण अंतर्दशा भाग विंशोत्तरी दशा महीने में उत्तर के लिए 12 से गुणा करेंगे शेष रहने पर दिन निकालने के लिए 365 से गुणा करेंगे । सभी ग्रहों की अंतरदशा के लिए यही एकिक नियम लागु करेंगे । आसान है आपलोग भयात एवं भभोग की वैदिक प्रक्रिया से बच जाएंगे साथ ही आपके लिए समझना आसान हो जाएगा । इसका अभ्यास एक दो बार कर लेंगे तो आसान हो जाएगा समझना । वर्तमान समय में टेक्नोलोजी का सहारा लेकर आप दशा निकालने के झंझट से बचते हैं । दशओं को समझते हुए कहना चाहेंगे कि सूर्यादि ग्रह अर्थात राहु व केतु सहित नौ ग्रहों की दशा कही गयी है, जबकि राहु व केतु को राशियों का स्वामित्व नहीं दिया गया है लेकिन विंशोत्तरी दशा में राहु व केतु के दशा बताए गए हैं, पराशर में कहा गया है शनिवत् राहु, कुजवत् केतु इसलिए राहु की दशा 18 वर्ष की जो शनि की दशा से एक वर्ष कम है तथा केतु की दशा 7 वर्ष की जो मंगल की दशा के बराबर है। जिन ग्रहों के पास अर्थात सूर्य से शनि तक को राशियों का स्वामित्व प्राप्त है इसलिए लग्नानुसार ये सभी ग्रह किसी न किसी भाव के स्वामी होते हैं लेकिन राहु व केतु किसी भाव के स्वामी नहीं कहे गये हैं तो इनके दशाओं के फल को स्पष्ट कैसे किया जाएगा - - पहला तो नैसर्गिक गुण स्वरूप के आधार पर करना होगा - दुसरा युति व दृष्टि के आधार पर करना होगा - राहु केतु की पत्रिका में स्थिति अर्थात किस भाव में स्थित है उसका विचार करके करना होगा - योगों का ध्यान रखकर करना होगा - साथ ही लग्नानुसार शनि, बुध और शुक्र का लग्न हो तो इनके गुण शनि के गुण के अनुकुल हैं इसको समझकर करना होगा मैंने राहु और केतु की चर्चा सबसे पहले इसलिए किया है कि आज वर्तमान समय में हमारे ज्योतिष ग्रहों का दशाफल भावपति होने के आधार पर ही करते हैं, जबकि ऐसा नहीं करना चाहिए । भावपति होने के कारण उस भाव फल तो करेगा ही साथ ही अपने कारकत्वों का फल भी करेगा और शुभाशुभ परिणाम अपने बलाबल के अनुसार करेगा । शनि भाग्येश होकर तात्कालिक रूप से शुभ कहलाएगा लेकिन शनि अशुभ ग्रह है इसका भी ध्यान रखना होगा ये नियम सभी ग्रहों के उपर लागु होगा साथ ही कहना चाहेंगे कि सभी ग्रह परिणाम अपने गुणस्वरूप के आधार पर करते हैं इसको भी विशेष महतव देना होगा । आपलोगों को समझ में आ गया होगा कि राहु व केतु की चर्चा कर हम सिर्फ इतना बताना चाह रहे थे कि ग्रह तात्कालिक प्रभाव के कारण अपने नैसर्गिक गुणों को नहीं भूलते । दशा का पाठ लिखते समय हम कहना चाहेंगे कि आप लोग दुविधा में पड़ेंगे और असमंजस की स्थिति भी होगी कि हम क्या पढ़ रहे हैं इसका समाधान भी यहीं मिलेगा यदि आप निरंतर पढ़ते रहेंगे तो शायद आपका दुविधा समाप्त हो जाए । *संकलन जोतिषरत्न पं देवव्रत बूट* *ग्रहदृष्टी सूर्यसिद्धांतीय पंचांग नागपूर*

No comments:

Post a Comment