Thursday, 31 August 2017
दशाफलदशाफल दशा- अन्तर्दशा का ज्ञान प्राप्त करना उतना कठिन नहीं है जितना फल ज्ञात करना| फलित ज्ञान प्राप्त करने में कठिनाई इसलिए आती है महादशा किसी ग्रह की और अन्तर्दशा, प्रत्यंतरदशा इत्यदि किसी और ग्रह की चल रही होती है| फलतः इनकी सम्यक संगति बैठाकर अनुपालिक फल निर्धारण करना एक अत्यंत जटिल एवं कठिन प्रक्रिया है जिस प्रकार शहद और घी दोनों अलग-अलग पदार्थ अमृत समान गुण वाले होकर भी दोनों संभाग मिलकर विष का निर्माण कर देते हैं, जिसका प्रभाव अपनी अलग विशेषता रखता है, बिल्कुल वैसे ही किसी ग्रह की महा दशा में किसी अन्य ग्रह की महादशा आने पर फलित भी बदल जाता है| महादशा की समयावधि लम्बी होती है और किसी भी ग्रह की महादशा का सम्पूर्ण भोग्य समय एक समान फलदायक नहीं होता| महादशा वाला ग्रह जिस राशि में है उसके १०-१० अंश क्र तीन भाग करें राशि के ऐसे एक भाग को द्रेश्काण कहते है| अब देखें की महादशा वाला ग्रह राशि के किस भाग (द्रेश्काण) में है, यदि प्रथम द्रेश्काण है तो महादशा के प्रथम भाग में, द्दितीय द्रेश्काण है तो महादशा के मध्य भाग में अपना शुभाशुभ फल प्रदान करेगा| दशाफल सूत्र- यदि कोई ग्रह वार्गोत्तमी है तो अपनी दशा-अन्तर्दशा में शुभ फल प्रदान करता है| यदि कोई ग्रह वार्गोत्तमी तो हो, लेकिन अपनी नीच राशि में होतो मिश्रित फल देता है| त्रिक स्थान (६,८,१२) के श्वामी अपनी दशा में अशुभ फल देते हैं| त्रिक स्थान में बैठे ग्रह अपनी महादशा में त्रिकेश कि अंतर दशा आने पर व त्रिकेश की महादशा में अपनी अन्तर्दशा आने पर अशुभ फल देते हैं| क्रूर ग्रह की महादशा में जब जन्म नक्षत्र से तीसरे, पांचवें व सातवें ग्रह के स्वामी की अन्तरदशा हो तो अशुभ फल मिलते हैं| क्रूर ग्रह की महादशा और जन्मराशि के स्वामी की अन्तर्दशा में भी अशुभ फल प्राप्त होता है| जन्म राशि से आठवीं राशि के स्वामी की दशा में क्रूर ग्रह की अन्तर्दशा कष्टदायक होती है| शनि की दशा चौथी, मंगल व राहू की दशा पाचवीं और वृहस्पति की दशा छठी पड़ती हो तो ये विशेष कष्टकारक रहती है| जैसे शुक्र की महादशा में जन्म हो तो राहू की महादशा पाचवीं होगी, वृहस्पति की छठी आदि| किसी राशि के अंतिम अंशों में स्थित ग्रह कि दशा-अन्तर्दशा अनिष्टकारक होती है| यदि उच्च राशि में स्थित ग्रह नवांश में नीच का हो जाये तो अशुभ फल देता है| यदि नीच राशि में स्थित ग्रह उच्च नवांश में हो तो अपनी दशा में शुभ फल देता है| किसी ग्रह की महादशा में उसके शत्रु ग्रह की अन्तर्दशा आने पर अनेक कष्ट होते हैं| यदि महादशा नाथ से अन्तर्दशा का स्वामी त्रिक स्थान ६,८,१२ में हो तो अशुभ फल देता है| राहू लग्न से तीसरे, छठे, आठवें, ग्यारहवें स्थित हो तथा चन्द्रमा से दूसरे या आठवें भाव में स्थित हो तो अपनी दशा में मारक होता है| यदि इन्हीं स्थानों में वह शुक्र अथवा गुरु से सम्बन्ध करें तो भी मारक होता है| शत्रु छेत्री ग्रह की दशा में जातक के कार्यों में विघ्न- बाधाएं आती हैं| षष्ठेश की दशा में अन्य अशुभ फल तो मिलते ही हैं, रोगों से भी कष्ट मिलता है| अस्तग्रह की दशा में अनेक अशुभ फल प्राप्त होते हैं| वक्री ग्रह की दशा में परदेशवास, रोग, पीड़ा, धनहानि तथा मानहानि जिसे फल मिलते हैं| राहू अथवा केतु से युक्त पापी ग्रह की दशा विशेष कष्टदायक व्यतीत होती है| लग्नेश अष्टमस्थ हो तो अपनी दशा में अत्यधिक पीड़ा देता है, यहाँ तक की मृतु भी सम्भव है| छिण चन्द्रमा और पाप ग्रह युक्त बुध अशुभ फलदायक होता है| यदि लग्नेश होरा, द्रेश्काण, नवांश, द्वदशांश व लग्न का स्वामी हो तो अपनी दशा में अत्यंत शुभ फलदायक होता है| भाव का स्वामी जिस राशि में बैठा हो और उस राशि अथवा भाव का स्वामी छठें, आठवें या बारहवें भाव में स्थित हो तो भाव के स्वामी ग्रह की दशा में भावजन्य फल का नाश हो जाता है| उदाहरणार्थ- पंचम भाव का स्वामी बुध यदि दशम भाव में स्थित हो और वहां वृश्चिक राशि हो, जिसका स्वामी मंगल छठे भाव में कर्क राशि का स्थित हो तो बुध की दशा में पंचम भाव सम्बन्धी फल नष्ट हो जाता है| षष्ठेश व अष्टमेशकी परस्पर दशा-अन्तर्दशा होने पर अशुभ फल ही प्राप्त होता है| शुभ ग्रह की महादशा में पापी ग्रह की अन्तर्दशा आने पर पहले दुःख बाद में सुख मिलता है| महाशेष व अंतरशेष किस राशि में हैं, किस ग्रह से दृष्ट हैं, किस ग्रह के साथ हैं, इन सब का सम्यक अध्यन करके ही फलाफल का निर्णय करना चाहिए| *संकलन जोतिषरत्न पं देवव्रत बूट* *ग्रहदृष्टी सूर्यसिद्धांतीय पंचांग नागपूर*
*विंशोत्तरी दशा फल कथन* हम सभी जानते हैं कि 12 भाव होते हैं और उसमें स्थित राशि उस भाव के स्वामी होते हैं, यहां शुभ भाव के स्वामी अशुभ ग्रह भी होते हैं और अशुभ भाव के स्वामी शुभ ग्रह भी होते हैं उदाहरण के लिए मेष लग्न के लिए लग्न के साथ पंचम जो त्रिकोण स्थान होने के कारण शुभ हैं लेकिन मंगल एवं सूर्य नैसर्गिक रूप से अशुभ ग्रह हैं तथा तुला लग्न में तीसरे एवं छठे स्थान के स्वामी गुरू होते हैं गुरू नैसर्गिक रूप से शुभ ग्रह हैं लेकिन तीसरा एवं छठा स्थान अशुभ स्थान कहे गए हैं । यहां हम लोगों को तात्कालिक गुण की भी बात करनी होगी । यदि तात्कालिक रूप से अर्थात आपके लग्नानुसार जो शुभ ग्रह भी यदि अशुभ नाथ हो तो उस स्थान के फल उसी शुभ ग्रह को करना होगा । उसी प्रकार शुभ भाव के स्वामी यदि अशुभ ग्रह हों तो उस भाव की शुभता उसी अशुभ ग्रह से प्राप्त होगा । यहां समझना होगा कि भाव के स्वामित्व प्राप्त करने पर किसी भी ग्रह के कारकत्वों या गुणस्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं होता अपितु अपने गुणस्वरूप के आधार पर ही संबंधित भावों का शुभाशुभ फल प्रदान करते हैं । हम सभी जानते हैं कि जीवनपर्यन्त आने वाले शुभाशुभ परिणामों के लिए भाव, भावेश तथा कारक को समझना होता है जो हमें लग्न चार्ट को देखकर तथा वर्गचार्ट से समर्थन प्राप्त कर मालुम होता है । उदाहरण के लिए विवाह होगा कि नहीं वैवाहिक जीवन कैसा होगा इसके लिए सप्तम भाव, सप्तमेश एवं कारक शुक्र के साथ-साथ स़्त्री जातक विशेष के लिए गुरू का अध्ययन कर समझ सकते हैं । लेकिन जब प्रश्न होगा कि विवाह कब होगा अर्थात समय निर्धारण की बात है किस वर्ष किस माह या किस दिन होगा इसके लिए हमेशा ज्योतिष में दशा के उपर निर्भर रहना होता है । यदि हमें लग्न चार्ट देखना आ गया तो हम यह समझ सकते हैं कि विवाह या वैवाहिक जीवन कैसा होगा परन्तु विवाह का समय निर्धारित करने के लिए दशा को समझना जरूरी होगा । यहां हम सर्व प्रथम आप लोगों को विंशोत्तरी दशा की चर्चा करेंगे जो प्रचलित होने के साथ-साथ विशेष स्पष्टता भी प्रदान करता है । हम जानते हैं कि दशा क्रम क्या होता है पुनः उसको दुहराते हैं - *आ - चम - भौ - रा - जी - श- बु - के- शु* याद रखने में आसान होगा । यहां आ का मतलब आदित्य अर्थात सूर्य, चम का अर्थ चन्द्रमा, भौ का अर्थ भौम अर्थात मंगल, रा से राहु जी का मतलब जीव यहां गुरू को जीव भी कहा जाता है, श से शनि, बु से बुध, के से केतु और शु से शुक्र । यह भी जानते हैं कि जन्म के समय चन्द्रमा जिस नक्षत्र में स्थित हो उसी नक्षत्र के स्वामी की शेष दशा प्राप्त होती है । यहां गणितीय पद्धति में समझते हैं कि यदि चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में जन्म के समय 3 अंश 20 कला भोग चुका हो तो चन्द्रमा की शेष 7.5 वर्ष की दशा प्राप्त होगी तथा चन्द्रमा के बाद मंगल और मंगल के बाद राहु की उपर जो क्रम बताया गया है उसी के अनुसार दशा क्रम जीवन पर्यन्त चलता रहेगा । यहां हमने महादशा की बात बतायी । विंशोत्तरी दशा पांच खंडों में बताया गया है - महादशा - अन्तदर्शा - प्रत्यन्तर्दशा - सूक्ष्म दशा तथा प्राण दशा । किसी भी ग्रह की महादशा होने पर उसी ग्रह की अंतर दशा प्राप्त होती है और पुनः दशा क्रम से अन्तर्दशा बदलती है । उदाहरण के लिए माना कि शुक्र की महादशा है तो शुक्र की अंतर्दशा प्राप्त होगी शुक्र की अंतर्दशा समाप्त होने पर क्रमशः सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, राहु, गुरू, शनि, बुध तथा केतु की आखरी अंतर्दशा शुक्र की महादशा में होगी । अंतर्दशा में प्रत्यन्तर दशा क्रम भी इसी अनुसार होगा साथ ही सुक्ष्म दशा और प्राण दशा का क्रम भी इसी नियम का पालन करता है । महादशा वर्ष भी यहां लिखना उचित होगा - सूर्य - 6 वर्ष, चन्द्रमा - 10 वर्ष, मंगल - 7 वर्ष, बुध - 17 वर्ष, गुरू - 16 वर्ष, शुक्र - 20 वर्ष, शनि - 19 वर्ष, राहु - 18 वर्ष तथा केतु की 7 वर्ष की महादशा होती है । महादशा में किन ग्रह की अंतर्दशा कितनी होगी इसको संक्षेप में समझते हैं - उदाहरण के लिए शुक्र की महादशा में चन्द्रमा के अंतर्दशा वर्ष - चूंकि 120 वर्ष की महादशा में 10 वर्ष की दशा प्राप्त होती है तो शुक्र की 20 वर्ष की महादशा में कितने की वर्ष की यहां संक्षेप में महादशा गुण अंतर्दशा भाग विंशोत्तरी दशा महीने में उत्तर के लिए 12 से गुणा करेंगे शेष रहने पर दिन निकालने के लिए 365 से गुणा करेंगे । सभी ग्रहों की अंतरदशा के लिए यही एकिक नियम लागु करेंगे । आसान है आपलोग भयात एवं भभोग की वैदिक प्रक्रिया से बच जाएंगे साथ ही आपके लिए समझना आसान हो जाएगा । इसका अभ्यास एक दो बार कर लेंगे तो आसान हो जाएगा समझना । वर्तमान समय में टेक्नोलोजी का सहारा लेकर आप दशा निकालने के झंझट से बचते हैं । दशओं को समझते हुए कहना चाहेंगे कि सूर्यादि ग्रह अर्थात राहु व केतु सहित नौ ग्रहों की दशा कही गयी है, जबकि राहु व केतु को राशियों का स्वामित्व नहीं दिया गया है लेकिन विंशोत्तरी दशा में राहु व केतु के दशा बताए गए हैं, पराशर में कहा गया है शनिवत् राहु, कुजवत् केतु इसलिए राहु की दशा 18 वर्ष की जो शनि की दशा से एक वर्ष कम है तथा केतु की दशा 7 वर्ष की जो मंगल की दशा के बराबर है। जिन ग्रहों के पास अर्थात सूर्य से शनि तक को राशियों का स्वामित्व प्राप्त है इसलिए लग्नानुसार ये सभी ग्रह किसी न किसी भाव के स्वामी होते हैं लेकिन राहु व केतु किसी भाव के स्वामी नहीं कहे गये हैं तो इनके दशाओं के फल को स्पष्ट कैसे किया जाएगा - - पहला तो नैसर्गिक गुण स्वरूप के आधार पर करना होगा - दुसरा युति व दृष्टि के आधार पर करना होगा - राहु केतु की पत्रिका में स्थिति अर्थात किस भाव में स्थित है उसका विचार करके करना होगा - योगों का ध्यान रखकर करना होगा - साथ ही लग्नानुसार शनि, बुध और शुक्र का लग्न हो तो इनके गुण शनि के गुण के अनुकुल हैं इसको समझकर करना होगा मैंने राहु और केतु की चर्चा सबसे पहले इसलिए किया है कि आज वर्तमान समय में हमारे ज्योतिष ग्रहों का दशाफल भावपति होने के आधार पर ही करते हैं, जबकि ऐसा नहीं करना चाहिए । भावपति होने के कारण उस भाव फल तो करेगा ही साथ ही अपने कारकत्वों का फल भी करेगा और शुभाशुभ परिणाम अपने बलाबल के अनुसार करेगा । शनि भाग्येश होकर तात्कालिक रूप से शुभ कहलाएगा लेकिन शनि अशुभ ग्रह है इसका भी ध्यान रखना होगा ये नियम सभी ग्रहों के उपर लागु होगा साथ ही कहना चाहेंगे कि सभी ग्रह परिणाम अपने गुणस्वरूप के आधार पर करते हैं इसको भी विशेष महतव देना होगा । आपलोगों को समझ में आ गया होगा कि राहु व केतु की चर्चा कर हम सिर्फ इतना बताना चाह रहे थे कि ग्रह तात्कालिक प्रभाव के कारण अपने नैसर्गिक गुणों को नहीं भूलते । दशा का पाठ लिखते समय हम कहना चाहेंगे कि आप लोग दुविधा में पड़ेंगे और असमंजस की स्थिति भी होगी कि हम क्या पढ़ रहे हैं इसका समाधान भी यहीं मिलेगा यदि आप निरंतर पढ़ते रहेंगे तो शायद आपका दुविधा समाप्त हो जाए । *संकलन जोतिषरत्न पं देवव्रत बूट* *ग्रहदृष्टी सूर्यसिद्धांतीय पंचांग नागपूर*
पितृस्रोत्रगरुड पुराणातील
हे पितृ स्तोत्र आहे, हे स्तोत्र रौच्य मनूचा पुत्र रुची याने केलेले असून ते स्त्री प्राप्ती ,उत्तम पुत्र प्राप्ती , पितरांची तृप्ती ,पितृ दोष नाहीसे होण्या करता कायम पठण ,श्रवण करावे या पितृ पंधरवड्यात विशेष रोज पठण करावे रुचीला आशीर्वाद पितरांनी दिला जो कुणी या स्तोत्राने आमची स्तुती करतील त्यांना मनो वांच्छित भोग,आत्मज्ञान ,निरोगी शरीर,धन ,पुत्र,पौत्र देऊ ,श्राद्ध प्रसंगी पठण केले तर आम्ही तिथे उपस्थित राहू थोडक्यात पितरांची तृप्ती करणारे हे स्तोत्र आहे याचा जरूर उपयोग करावा पुराणोक्त पितृ -स्तोत्र : अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम्। नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम्।। इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा। तान् नमस्याम्यहं सर्वान् पितृनप्सूदधावपि।। नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा। द्यावापृथिव्योश्च तथा नमस्यामि कृतांजलिः।। देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान्। अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येऽहं कृतांजलिः।। प्रजापतं कश्यपाय सोमाय वरूणाय च। योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृतांजलिः।। नमो गणेभ्यः सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु। स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे।। सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा। नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम्।। अग्निरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम्। अग्निषोममयं विश्वं यत एतदशेषतः।। ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्निमूर्तयः। जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिणः।। तेभ्योऽखिलेभ्यो योगिभ्यः पितृभ्यो यतमानसः। नमो नमो नमस्ते मे प्रसीदन्तु स्वधाभुजः I
Tuesday, 29 August 2017
*विवाह योग विचार*
यावन्तो वा विहन्गा मदनसदनगाश्चेन्निजाधीशद्रिष्टा- स्तावन्तो निर्विवाहास्त्व्थ सुमतिमता ज्ञेयमित्थं कुटुम्बे | कार्यो होराग्मज्ञैरधिकबलवतां खेचराणां हि योगा -ददेष्यं तत्रवीर्यंरविविधुकुभुवमन्गदिक्शैलसंख्यम् || सप्तम स्थान में जितने ग्रह हों, उतने ही विवाह होते हैं | लेकिन उन पर सप्तमेश की दृष्टि आवश्यक है इसी प्रकार कुटुंब स्थान अर्थात् दुतीय स्थान में जितने ग्रह द्वितीयेश से दृष्ट हों, उतने ही विवाह होते हैं बुद्धिमान दैवग्यों अधिक बल वाले ग्रह के योगों से विवाह की संख्या का विचार करना चाहिए इस प्रशंग में सूर्य, चन्द्र व मंगल का क्रमशः ६,१०,७ रूपा बल होता है | शेष ग्रहों का ६ रूपा बल होता है, ऐसा पद्दति के नियम से स्वतः सिद्ध है अर्थात् शेष ग्रह ६ रूपा से अधिक बलि होनें पर बलि मानें जाते है | इस श्लोक की संख्या प्राचीन टीकाकारों नें उक्त प्रकार से ही की है | लेकिन सुकसुत्त्रों के सन्दर्भ में इन पर नई रौशनी पड़ती है | सामान्यतः ३ रूपा या अंश तक षड्बल होनें पर ग्रह निर्बल, ६ से कम होने पर मद्दयम बाली और ६ से अधिक बल होने पर बलवान माना जाता है | यह बात पद्दति ग्रंथों से सिद्ध है तथा हमारे विचार से भी यही बात यहाँ उपयुक्त है | सूत्रों का पाठ प्रस्तुत है | (1) कल्त्राधिपेन कुटूम्बाधिपेन वा दृष्टा यावन्तो ग्रहाः कलत्रस्थानं कुटुम्बस्थानं वा गताः तावत् संख्यकानि कलत्राणी भवन्ति | (२) अथवा बलाधिक्यात् | (३) तत्र रवेः षट् | (४) चन्द्रस्य दश | (५) भौमश्य सप्त | (६) बुधस्य सप्तदश | (७) गुरोः षोडश | (८) शुक्रस्य विन्शतिः | (९) शनेरेकोनविन्शतिः | (१०) राहोः | (११) केतोः (१२) इत्यादि ज्ञेयम् (१३) सत्यमेन कलत्र चिन्ता | (शुकसुत्र ) श्लोक की प्रथम पंक्ति का अर्थ सुत्रानुसारी हमनें किया है | यद्यपि 'कुटुम्ब' शब्द का अर्थ प्राचीनो ने 'अन्य परिवारजन' किया था, लेकिन सूत्रानुसार सप्तम या द्वितीय में जितने ग्रह सप्तमेश व द्वितीयेश में दृष्ट हों उतनी ही स्त्रियाँ होती हैं, यह बात सिद्ध होती है तथ यही उपयुक्त है | लेकिन बल के सन्दर्भ में सूत्रकार नें जो संख्या बताई है वह संख्या वास्तव में विंशोत्तरी दशा में इन ग्रहों के दशा वर्षों की संख्या ही है | इसी आधार पर सूर्य, चन्द्रमा व मंगल का बल भी गणेश कवि ने ६,१०,७ क्रमशः माना है जो सुत्रानुसारी है | लेकिन शेष ग्रहों के बल का उल्लेख श्लोकों में नहीं है यह बल विचार प्राचीन जैमिनियत या पराशरमत या यवन मतानुशार पद्धति ग्रंथों के भी विरुद्ध है | हमारी अल्प बुद्धि मई इस सुत्त्रोक्त बल का तारतम्य अवगत नहीं होता है | विद्दवान पाठक इस प्रकरण की प्रमाणिकता पर विचार करें | अस्तु,विवाह संख्या के विषय में भी आजकल जोतिषीयों को आधुनिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए | आजकल एकाधिक विवाह गैरकानूनी हैं | अतः सामाजिक पदवी प्रतिष्ठा व स्थिति देखकर एकाधिक विवाह की बात कहनी चाहिए | सामान्यतः द्दितियेश व सप्तमेश पर शुभ प्रभाव या इनका परस्पर सम्बन्ध अथवा किसी शुभ भाव में इस्थिति विवाह की द्योतक होगी | लेकिन साधुओं सन्यासियों आदि के सन्दर्भ में संतान योगों की तरह विवाह योगों को भी निष्क्रिय ही समझना चाहिए | *संकलन जोतिषरत्न पं देवव्रत बूट* *ग्रहदृष्टी सूर्यसिद्धांतीय पंचांग नागपूर*
Monday, 28 August 2017
टाक
माझ्या घरातील देव्हार्यात एकुण सर्व 7 देवांचे टाक आहेत पण
एक टाक 1)जोडलेला जोड टाक - विराचा टाक आहे
2)देवदेवतांचे टाक आहेत
3)सर्व देवदेवतांचे टाक
पण विर कोण आहेत?
आपण सविस्तर विवेचन अथवा मार्गदर्शन करणारे
उत्तर अपेक्षित आहे
आयु निर्णय
*आयु निर्णय का एक महत्वपूर्ण सूत्र*
महर्षि पाराशन ने प्रत्येक ग्रह को निश्चित आयु पिंड दिये है,सूर्य को १८ चन्द्रमा को २५ मंगल को १५ बुध को १२ गुरु को १५ शुक्र को २१ शनि को २० पिंड दिये गये है उन्होने राहु केतु को स्थान नही दिया है। जन्म कुंडली मे जो ग्रह उच्च व स्वग्रही हो तो उनके उपरोक्त वर्ष सीमा से गणना की जाती है। जो ग्रह नीच के होते है तो उन्हे आधी संख्या दी जाती है,सूर्य के पास जो भी ग्रह जाता है अस्त हो जाता है उस ग्रह की जो आयु होती है वह आधी रह जाती है,परन्तु शुक्र शनि की पिंडायु का ह्रास नही होता है,शत्रु राशि में ग्रह हो तो उसके तृतीयांश का ह्रास हो जाता है। इस प्रकार आयु ग्रहों को आयु संख्या देनी चाहिये। पिंडायु वारायु एवं अल्पायु आदि योगों के मिश्रण से आनुपातिक आयु वर्ष का निर्णय करके दशा क्रम को भी देखना चाहिये। मारकेश ग्रह की दशा अन्तर्दशा प्रत्यंतर दशा में जातक का निश्चित मरण होता है। उस समय यदि मारकेश ग्रह की दशा न हो तो मारकेश ग्रह के साथ जो पापी ग्रह उसकी दशा में जातक की मृत्यु होगी। ध्यान रहे अष्टमेश की दशा स्वत: उसकी ही अन्तर्द्शा मारक होती है। व्ययेश की दशा में धनेश मारक होता है,तथा धनेश की दशा में व्ययेश मारक होता है। इसी प्रकार छठे भाव के मालिक की दशा में अष्टम भाव के ग्रह की अन्तर्दशा मारक होती है। मारकेश के बारे अलग अलग लगनो के सर्वमान्य मानक इस प्रकार से है।
मारकेश विचार
जन्म लगन से आठवा स्थान आयु स्थान माना गया है। लघु पाराशरी से तीसरे स्थान (आठवें से आठवा स्थान) को भी आयु स्थान कहा गया है। आयु स्थान से बारहवें यानी सप्तम को भी मारक कहा गया है।शास्त्रों में दूसरे भाव के मालिक को पहला मारकेश और सप्तम भाव के मालिक को दूसरा मारकेश बताया है। आठवा भाव मृत्यु का सूचक है। आयु और मृत्यु एक दूसरे से सम्बन्धित होते है। आयु का पूरा होना ही मृत्यु है। मौत के कारण बनते है,रोग दुर्घटना या अन्य प्रकार मौत के कारण बनते है। इस प्रकार से आठवें भाव से मौत और मनुष्य के जीवन का विचार किया जाता है। रोग का साध्य या असाध्य होना आयु का एक कारण है। जब तक आयु है कोई रोग असाध्य नही होता है,किंतु आयु की समाप्ति के आसपास होने वाला साधारण रोग भी असाध्य बन जाता है। इसलिये रोगों के साध्य असाध्य होने का विचार भी इस भाव से होता है। बारहवे भाव को व्यय स्थान भी कहते है व्यय का अर्थ है खर्च करना,हानि होना आदि। कोई भी रोग शरीर की शक्ति अथवा जीवन शक्ति को कमजोर करने वाला होता है,इसलिये बारहवें भाव से रोगों का विचार किया जाता है। इस स्थान से कभी कभी मौत के कारणों का पता चल जाता है,वस्तुत: अचानक दुर्घटना होना मौत के द्वारा मोक्ष का कारण भी यहीं से निकाला जाता है। मारकेश का नाम लेते ही या मौत का ख्याल आते ही लोग घबडा जाते है। आचार्यों ने अलग अलग लग्नो के अलग अलग मारकेश बताये है। मेष लग्न के जातक के लिये शुक्र मारकेश होकर भी उसे मारता नही है,लेकिन शनि और शुक्र मिलकर उसके साथ अनिष्ट करते है। वृष लगन के लिये गुरु घातक है,मिथुन लगन वाले जातकों के लिये चन्द्रमा घातक है,लेकिन मारता नही है मंगल और गुरु अशुभ है,कर्क लगन वाले जातकों के लिये सूर्य मारकेश होकर भी मारकेश नही है,परन्तु शुक्र घातक है,सिंह लगन वालो के लिये शनि मारकेश होकर भी नही मारेगा,लेकिन बुध मारकेश का काम करेगा। कन्या लगन के लिये सूर्य मारक है,पर वह अकेला नही मारेगा मंगल आदि पाप ग्रह मारकेश के सहयोगी होंगे। तुला लगन का मारकेश मंगल है,पर अशुभ फ़ल गुरु और सूर्य ही देंगे। वृश्चिक लगन का गुरु मारकेश होकर भी नही मारेगा,जबकि बुध सहायक मारकेश होकर पूर्ण मारकेश का काम करेगा। धनु लग्न का मारक शनि है,पर अशुभ फ़ल शुक्र देगा। मकर लगन के लिये मंगल ग्रह घातक है,कुंभ लगन के लिये मारकेश गुरु है लेकिन घातक कार्य मंगल करेगा। मीन लगन के लिये मंगल मारक है शनि भी मारकेश का काम करेगा। ध्यान रहे छठे आठवें बारहवें भाव मे पडे राहु केतु भी मारक ग्रह का काम करते है।
*संकलन जोतिषरत्न पं देवव्रत बूट*
*ग्रहदृष्टी सूर्यसिद्धांतीय पंचांग नागपूर*
नवग्रह विचार
*विवाहमे नवग्रह विचार*
जैसे मयूरों के शिखा और नागों का मणि शिरोभूषण है वैसे ही वेदाग शास्त्रों (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरक्त, छन्द और ज्योतिष) में ज्योतिष शिरोभूषण है| मानव जीवन की प्रत्येक निमिष को किसी न किसी का अनुग्रह प्राप्त है| इस अनिवार्य अनुभव को शब्द सम्भव और विवेक सम्मत बनाकर भारतीय ऋषि मुनियों ने जन्मांक चक्र की परिकल्पना की नन्मंक चक्र का प्रत्येक भाव कुछ विशिष्ट तथ्यों का नइयामन करता है| सप्त भाव जन्मांक चक्र का मध्यवर्ती भाव है शत्रु भाव में क्रूर सम्पुट में स्थित यह भाव काम कलित तथा वासना वलयित भावों अनुभवों संबंधों रहस्यों की वैकृतिक स्मिता और सामाजिकता की विवेचना का मूल स्थान है|
एक नजर सप्तमस्थ ग्रहों पर डालें-
सूर्य
स्त्रीभिःगतः परिभवः मदगे पतंगे (आचार्य वराहमिहिर)
जिसके जन्म समय में लग्न से सप्तम में सूर्य स्थित हो तो इसमें स्त्रियों का तिरस्कार प्राप्त होता है| सूर्य की सप्तम भाव में स्थिति सर्वाधिक वैवाहिक जीवन एवं चरित्र को प्रभावित करता है| सूर्य अग्निप्रद ग्रह होता है|जिसके कारण जातक के विवेक तथा वासना पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाता है|
चन्द्रमा
सौम्यो ध्रिश्यः सुखितः सुशरीररः कामसंयुतोद्दूने|
दैन्यरुगादित देहः कृष्णे संजायते शशिनि||
-(चमत्कार चिन्तामणि)
सप्तम भाव मे चन्द्रमा हो तो मनुष्य नम्र विनय से वश में आने वाला सुखी सुन्दर और कामुक होता है और चन्द्र यदि हीन वाली हो तो मनुष्य दीन और रोगी होता है|
भौम
स्त्रियाँ दारमरणं नीचसेवनं नीच स्त्री संगमः|
कुजेतिसुस्तनी कठिनोर्ध्व कुचा||
-(पराशर)
सप्त्मस्थ मंगल की स्थिति प्रायः आचार्यों ने कष्ट कर बताया सप्तम भाव में भौम होने से पत्नी की मृत्यु होती है| नीच स्त्रियों से कामानल शांत करता है| स्त्री के स्तन उन्नत और कठिन होते हैं| जातक शारीरिक दृष्टि से प्रायः क्षीण, रुग्ण, शत्रुवों से आक्रांत तथा चिंताओं में लीं रहता है|
बुध
बुधे दारागारं गतवति यदा यस्य जनने|
त्वश्यं शैथिल्यं कुसुमशररगोत्सविधौ||
मृगाक्षिणां भर्तुः प्रभवति यदार्केणरहिते|
तदा कांतिश्चंचत् कनकस द्रिशीमोहजननी||
-(जातक परिजात)
जिस मनुष्य के जन्म समय मे बुध सप्तम भाव मे हो वह सम्भोग में अवश्य शिथिल होता है| उसका वीर्य निर्बल होता है| वह अत्यन्त सुन्दर और मृगनैनी स्त्री का स्वामी होता है यदि बुध अकेला हो तो मन को मोहित करने वाली सुवर्ण के समान देदीप्यमान कान्ति होती है|
जीव
शास्त्राभ्यासीनम्र चितो विनीतः कान्तान्वितात्यंतसंजात सौष्ठयः|
मन्त्री मर्त्यः काव्यकर्ता प्रसूतो जायाभावे देवदेवाधिदेवः|
जिस जातक के जन्म समय में जीव सप्तम भाव में स्थित हो वह स्वभाव से नम्र होता है| अत्यन्त लोकप्रिय और चुम्बकीय व्यक्ति का स्वामी होता है उसकी भार्या सत्य अर्थों में अर्धांगिनी सिद्ध होती है तथा विदुषी होती है| इसे स्त्री और धन का सुख मिलता है| यह अच्छा सलाहकार और काव्य रचना कुशल होता है|
शुक्र
भवेत किन्नरः किन्नराणां च मध्ये||
स्वयं कामिनी वै विदेशे रतिः स्यात्|
यदा शुक्रनामा गतः शुक्रभूमौ|| (चमत्कारचिंतामणि)
जिस जातक के जन्म समय में शुक्र सप्तम भाव हो उसकी स्त्री गोरे रंग की श्रेष्ठ होती है| जातक को स्त्री सुखा मिलता है गान विद्द्या में निपुण होता है, वाहनों से युक्त कामुक एवं परस्त्रियों में आसक्त होता है विवाह का कारक ग्रह शुक्र है| सिद्धांत के तहत कारक ग्रह कारक भाव के अंतर्गत हो तो स्थिति को सामान्य नहीं रहने देता है इसलिए सप्तम भाव में शुक्र दाम्पत्य जीवन में कुछ अनियमितता उत्पन्न करता है ऐसे जातक का विवाह प्रायः चर्चा का विषय बनता है|
शनि
शरीरदोषकरः कृशकलत्रः वेश्या संभोगवान् अति दुःखी|
उच्चस्वक्षेत्रगते अनेकस्त्रीसंभोगी कुजयुतेशिश्न चुंवन परः||
-(भृगु संहिता)
सप्तम भाव में शनि का निवास किसी प्रकार से शुभ या सुखद नहीं कहा जा सकता है| सप्तम भाव में शनि होने से जातक का शरीर दोष युक्त रहता है| (दोष का तात्पर्य रोग से है) उसकी पत्नी क्रिश होती है जातक वेश्यागामी एवं दुखी होता है| यदि शनि उच्च गृही या स्वगृही हो तो जातक अनेक स्त्री का उपभोग करता है यदि शनि भौम से युक्त हो तो स्त्री अत्यन्त कामुक होती है उसका विवाह अधिक उम्र वाली स्त्री के साथ होता है|
राहु
प्रवासात् पीडनं चैवस्त्रीकष्टं पवनोत्थरुक्|
कटि वस्तिश्च जानुभ्यां सैहिकेये च सप्तमे||
-(भृगु सूत्र)
जिस जातक के जन्म समय मे राहु सप्तम भावगत हो तो उसके दो विवाह होते हैं| पहली स्त्री की मृत्यु होती है दूसरी स्त्री को गुल्म रोग, प्रदर रोग इत्यादि होते हैं| एवं जातक क्रोधी, दूसरों का नुकसान करने वाला, व्यभिचारी स्त्री से सम्बन्ध रखने वाला गर्बीला और असंतुष्ट होता है|
केतु
द्दूने च केतौ सुखं नैव मानलाभो वतादिरोगः|
न मानं प्रभूणां कृपा विकृता च भयं वैरीवर्गात् भवेत् मानवानाम्|
-(भाव कौतुहल)
यदि सप्तम भाव में केतु हो तो जातक का अपमान होता है| स्त्री सुख नहीं मिलता स्त्री पुत्र आदि का क्लेश होता है| खर्च की वृद्धि होती है रजा की अकृपा शत्रुओं का डर एवं जल भय बना रहता है| वह जातक व्यभिचारी स्त्रियों में रति करता है|
वैवाहिक विलम्ब के योग-
विवाह एक संश्लिष्ट और बाहू आयामी संस्कार है| इसके सम्बन्ध में किसी प्रकार के फल के लिए विस्तृत एवं धैर्यपूर्व अध्ययन मनन- चिंतन की अनिवार्यता होती है किसी जातक के जन्मांग से विवाह संबंधित ज्ञान प्राप्ति के लिए द्द्वितीय, पंचम, सप्तम एवं द्वादश भावों का विश्लेषण करना चाहिए| आज के वर्तमान समय में कन्याओं का विवाह विशेष रूप से समस्या पूर्ण बन गया है| अनेकानेक कन्याओं की वरमाला उनके हाथों ही मुरझा जाती है अर्थात उनका परिणय तब सम्पन्न होता है जब उनके जीवन का ऋतुराज पत्र पात के प्रतीक्षा में तिरोहित हो जाता है वैवाहिक विलम्ब के अनेक कारण हो सकते हैं| जैसे आर्थिक विषमता, शिक्षा की स्थिति, शारीरिक संयोजन, मानसिक संस्कार, ग्रहों की स्थिति इत्यादि| आइये हम ज्योतिष का माध्यम से कुछ योगों का अध्ययन चिंतन करें-
१. शनि और मंगल यदि लग्न में या नवांश लग्न से सप्तमस्थ हो तो विवाह नहीं होता विशेषतः लग्नेश और सप्तमेश के बलहीन होने पर|
२. यदि मंगल और शनी, शुक्र और चन्द्रमा से सप्तमस्थ हो तब विवाह विलम्ब से होता है|
३. शनि और मंगल यदि षष्ठ और अष्टम भावगत हो तो भी विवाह में विलम्ब होता है|
४. यदि शनि और मंगल में से कोई भी ग्रह द्वितीयेश अथवा सप्तमेश हो और एक दुसरे से दृष्ट से तो विवाह में विलम्ब होता है|
५. यदि लग्न, सप्तम भाव, सप्तमेश और शुक्र स्थिर राशिगत हों एवं चन्द्रमा चर राशि में हो तो विवाह विलम्ब से होता है|
६. यदि द्वितीय भाव में कोई वक्री ग्रह स्थित हो या द्वितीयेश स्वयं वक्री हो तो भी विवाह में विलम्ब होता है|
७. यदि द्वितीय भाव पापग्रस्त हो तथा द्वितीयेश द्वादश्थ हो तब भी विवाह विलम्ब से होता है|
८. पुरुषों की कुण्डली में सूर्य मंगल अथवा चन्द्र शुक्र की सप्तम भाव की स्थिति यदि पापाक्रांत हो तो भी विवाह में विलम्ब होता है|
९. राहू और शुक्र के लग्नस्थ होने पर भी विवाह में विलम्ब होता है|
१०. यदि सप्तम बी हव का स्वामी त्रिक (६,८,१२) भाव में स्थित या त्रिक भाव का स्वामी सप्तम भाव में स्थित हो तो विवाह में अत्यन्त विलम्ब होता है|
११. यदिलाग्नेश और शुक्र वन्ध्या राशिगत हो (मिथुन, सिंह,कन्या एवं धनु)तो भी विवाह में विलम्ब होया है|
*संकलन जोतिषरत्न पं देवव्रत बूट*
*ग्रहदृष्टी सूर्यसिद्धांतीय पंचांग नागपूर*